बहते हुए लहू का हिसाब चाहता हूं, मैं गुलाब नहीं इंकलाब चाहता हूं

बहते हुए लहू का हिसाब चाहता हूं, मैं गुलाब नहीं इंकलाब चाहता हूं

शशि भूषण समदbr जमीं पे बहते लहू का हिसाब चाहता हूंbr मैं अब गुलाब नहीं इंकलाब चाहता हूं।br मेरे वो ख़्वाब जिन्हें रोजो सब जलाते हो।br सरे निगाह…..मैं फिर से वो ख़्वाब चाहता हूँbr जमीं पे बहते लहू का हिसाब चाहता हूंbr मैं अब गुलाब नहीं…. इंकलाब चाहता हूं।br पियु तो झूम के बिस्मिल के तराने गाऊbr मैं अपने वास्ते ऐसी शराब चाहता हूं।br जमीं पर बहते लहू का हिसाब चाहता हूंbr मैं अब गुलाब नहीं ….इंकलाब चाहता हूं।br मेरे सवाल पे ….कैसे उछल के भागता हैbr मुझे जवाब तो दे दे …. जवाब चाहता हूं।br जमीं पर बहते लहू का हिसाब चाहता हूंbr मैं अब गुलाब नहीं… इंकलाब चाहता हूंbr जरा सी बात उन्हें क्यों समझ नही आतीbr मैं सिर्फ तुमसे…कलम और किताब चाहता हूं।br मैं अब गुलाब नहीं ..


User: Wasim Raja

Views: 2

Uploaded: 2020-01-24

Duration: 05:39

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